Tuesday 21 November 2017

इंसान और इंसान की सोच

दील और दिमाग से थक चुका हूँ मैं,
समाज के कायदे और कानून से पक चूका हूँ मैं।।

खुल के जियो फिर भी समाज कहती हैं,
ना जियो तो भी समाज कहती ही है।।

अपनी अपनी सोच की बात हैं,

चाहो तो कोई कागज रद्दी या कोई कागज गीता बन जाये,
कोई पत्थर से ठोकर खाये तो कोई पत्थर भगवान बन जाये ।।

जात पात का भेदभाव यह मुद्दा बहोत गंभीर है,
समाज के लिए यही लक्ष्मन रेखा और यही लकीर है ।।

इंसानी दुनिया में खुद हो ना हो समाज सच्चा होना चाहिए,
खुद का घर कैसा भी हो समाज अच्छा होना चाहिए।।

यहाँ इंसानो का इंसानो से कोई मेल नहीं होता,
समाज के हिसाब से दो अलग जाट मिल जाये तो ये कोई खेल नहीं होता ।।

अरे मुर्ख जात भले ही अलग हो पर हर इंसान एक होता है,
उच्च नीच कुछ नहीं अगर समाज में हर एक इंसान नेक होता है ।।

जब सर-ए-कफ़न बाँध मैं समाज के खिलाफ चल पड़ा,
तब में कब्र में था और मेरे आजु बाजू हर इंसान था खड़ा।।

जीते जी कोई समझ ना पाया मुझे,
मरते ही हर इंसान समझ गया ।।
अचानक कब्र के बहार से किसी की आवाज आयी,
इंसान बुरा नहीं था, बेचारा खामोखां चला गया।।

देर हो जाये उससे पेहले ही समझ जाओ,
समाज का समाज का हिस्सा हर एक इंसान है,
और हर एक इंसान को अपनाओ ।।

सोच सोच कर दिल से निकला वही लिख पाया हूँ मैं,
ग़ालिब तो नहीं पर एक इंसान या कहो इंसान का साया हूँ मैं ।।


~आशुतोष ज. दुबे

No comments:

Post a Comment