Tuesday 24 October 2017

खोयी हुई इंसानियत


शहर के भीड़ में कही घूम सा गया हूं मैं,
खुद को ढूंड कर अब ऊब सा गया हूं मैं।।

ऊँची है इमारते , ऊँचे है लोग,
बड़ा सा है दिल, पर छोटी सी है सोच।।

जीवन की भाग-दौड़ में
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है?
साली हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी बहोत आम हो जाती है।।

बड़ी बड़ी इमारतों में कही चिड़िया का घोसला नजर आया,
उन चिडयो के साथ खेलता एक इन्सान नजर आया।।

वो इन्सान भी क्या इन्सान था जिसने खुद का घर तो बसाया,
साथ ही उन चिडयो को पनाह देकर इंसानियत दिखाया,

बात तो १००% की है,
इंसान तो हर घर में पैदा होता है,
पर इंसानियत कही कही पैदा होती है ।।

-आशुतोष ज. दुबे

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