Wednesday 28 March 2018

विश्वास एक अन्धविश्वास

चल पड़ा बे खौफ क्योकि मुझे अपनों पर विश्वास था,
न था किसी से डर क्योकि मुझे अपनों का एहसास था ।

प्यार मिला इतना की आंसू मोहब्बतों में बट गयी,
देखते देखते आधी जिंदगी तो यु ही कट गयी ।

मंजिल दूर थी पर अपनों का साथ देख मेरे पैर अब भी चल रहे थे,
अचानक ठोकर खायी पर मेरे ही अपने मेरे आजु बाजु टहल रहे थे ।

में समझ ना पाया मेरे अपनों के होते हुवे ठोकर कैसे खाया मैंने,
क्या ये सच में अपने है या फिर धोके का ठोकर खाया मैंने ।

मुझे अब धीरे धीरे सब समझ आने लगा था,
अपनों से विश्वास कम और डर ज्यादा लगने लगा था ।

मंजिल अब भी दूर थी पर मेरे पैर आज अकेले चल रहे थे,
बिना साथ मेरे अपने मेरे आजु बाजु क्यों टहल रहे थे ।

इस उलझन में मै मेरे कदम फूक फूक कर चलाने लगा,
इस बार ठोकर नहीं खाई तो सब समझ आने लगा ।

लाखो तकलीफे सेह समझा तकलीफ देना तो घोर पाप है,
तकलीफ देने वाला और कोई नहीं तुम्हारे अपने ही आस्तीन का साप है ।

इस समाज को ही अपना माना था परिवारों को नहीं,
विश्वास शब्द पर विश्वास है पर अब लोगो पर नहीं ।

~ आशुतोष ज. दुबे

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